Raghuveer Sharma
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रसखान रत्नावली (सवैया -102)
देखन कौं सखी नैन भए न सबै
बन आवत गाइन पाछैं।
कान भए प्रति रोम नहीं सुनिबे
कौं अमीनिधि बोलनि आछैं।।
ए सजनी न सम्हारि भरै वह बाँकी
बिलोकनि कोर कटाछै।
भूमि भयौ न हियो मेरी आली
जहाँ हरि खेलत काछनी काछै।।
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